शनिवार, 5 सितंबर 2015

व्यंग्य हार्दिक नहीं आत्मीय अभिनन्दन



व्यंग्य
हार्दिक नहीं आत्मीय अभिनन्दन
दर्शक
मुझे विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि भोपाल में आयोजित होने वाले अगले विश्व हिन्दी सम्मेलन में सम्मेलन में अतिथियों का हार्दिक स्वागत नहीं किया जायेगा अपितु आत्मीय स्वागत हो सकता है। इस सम्मेलन में एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जिसमें कहा जा सकता है कि शब्दकोष में नीचे एक फुटनोट लगा दिया जाये कि जहाँ जहाँ –हार्दिक- शब्द लिखा हो उसे आत्मीय पढा जाये। हर आमो-खास को इत्तिला दी जाती है कि सरकार का हार्दिक शब्द से कोई सम्बन्ध नहीं है और अगर पहले कभी रहा भी हो तो सरकारी पार्टी की नीतियों के अनुसार उसने पहले ही हार्दिक से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था। अश्वत्थामा हतो, नरो व कुंजरो की तरह चाहे वह व्यक्ति हो या शब्द । व्यक्तिवाचक संज्ञा हो या भाव वाचक।
राजनीति में शब्द बहुत परेशान करने लगे हैं। अब अरविन्द केजरीवाल को ही देखो उन्होंने आप पार्टी बना ली। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा चुनाव कार्यकर्ता जहाँ जहाँ वोट मांगने जाते थे, तो लोग कहते थे कि आपको ही वोट देंगे। ऐसा करके उन्होंने अपना वचन निभाया भी और उन्होंने आप को सत्तर में से सड़सठ सीटें दे दीं। भाजपा के प्रचारक समझते रहे कि दिल्ली में उम्मीद की नई किरन बेदी फूटेगी पर दिल्ली की जनता तो उन्हें आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में पढाते हुए देखना चाहती थी। यह पता नहीं चला कि चुनाव हारने के बाद वे कितनी बार आक्सफोर्ड में पढाने गयीं हैं, या अब तक अपना सबक ही तैयार कर रही हैं। बहरहाल एक सबक तो उन्होंने ले लिया कि आगे कभी चुनाव नहीं लड़ेंगीं।
चुनाव प्रचार के दौरान मोदीजी ने व्यापारियों को सम्बोधित करते हुए अपने बारे में कहा था कि व्यापार तो उनके खून में है। भले ही वे शेष कही बातों पर खरे न उतरे हों सबके खातों में पन्द्रह लाख न जमा करवा पाये हों, किंतु इस बात पर खरे उतरे हैं। सबसे पहले तो उन्होंने ओबामा से मुलाकत के समय पहना सोने की धारियों से नरेन्द्र मोदी लिखा हुआ सूट नीलाम किया और फिर तो जगह जगह बोली ही लगाते दिखे। बिहार में जैसी बोली लगायी वह तो दुनिया के किसी भी प्रधानमंत्री के इतिहास में न लगी और न लगेगी। भूतो न भविष्यति। पचास हजार करोड़ दूं कि साठ हजार करोड़ दूँ, साठ हजार करोड़ दूँ कि सत्तर हजार करोड़ दूँ और इसी तरह करते करते उन्होंने खुद ही बोली को सवा लाख करोड़ पर तोड़ा। क्या होती है सरकार की मंत्री परिषद और काहे की बैठक? न खाता न बही जो मोदी कह दें वही सही। विकास के पैकेज की बोली लगाने के बाद खून में व्यापार वाले अब बीमा बेच रहे हैं। इस रक्षा बन्धन को अपनी बहिन को बारह रुपये वाला बीमा देना है या तीन सौ तीस वाला देना है। जल्दी बोलो- एक, दो, तीन। बाज़ार वाले परेशान हैं कि अब तक वे ही हर त्योहार को सामान खरीदने का शुभ अवसर बताते थे पर एक और आ गया सरकारी विज्ञापनों के दम पर बारह रुपये और तीन सौ तीस का बीमा बेचने वाला।
एक विज्ञापन में मोदी जी किसी माँ की आँखों को धुएं के चूल्हे से बचाने के लिए गैस सब्सिडी छुड़वाते नज़र आते हैं जैसे गैस सिलेंडर वे बूढी माँ को मुफ्त में दे देंगे और गैस के पैसे भी नहीं लेंगे। मुझे तो यह पता है कि आजकल सारे गैस एजेंसी वाले बैनर लगाये हुए हैं कि गैस कनैक्शन उपलब्ध है, [गाँठ में पैसे हों तो आओ और ले जाओ,] पर लोगों की जेब में पैसे ही नहीं हैं। बहरहाल एक सच यह भी है कि आँखें खराब करने के लिए केवल चूल्हे का धुँआ ही इकलौता कारण नहीं है अपितु यज्ञ के धुएँ से भी आँखों पर वैसा ही असर पड़ता है, जो अक्सर ही मोदी जी की पार्टी के लोग अपने विरोधियों को सद्बुद्धि देने के लिए भी करने लगे हैं। आँखें तो चुनावी लाभ की प्रत्याशा में फैलाये गये साम्प्रदायिक दंगों के बीच की गयी आगजनी से भी खराब होती हैं। कहा जाता है कि प्याज के रस से बाबा रामदेव अपनी आँख की दवा दृष्टि बनाते और बेचते हैं अर्थात प्याज के रस से निकले आँसू आँखों की गन्दगी को बाहर निकाल देते थे, पर अब वह भी सम्भव नहीं क्योंकि गरीब की रसोई से प्याज दूर हो गया है।   
    

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