व्यंग्य
विजुअल मीडिया के
बिजूके
दर्शक
देश का पूरा माहौल अशांत चल रहा
है। इसमें कहीं सुशांत चल रहा है तो कहीं प्रशांत चल रहा है। जब से देश में विजुअल
मीडिया [दृश्य माध्यम] ने प्रिंट मीडिया की जगह ली है तब से सूचनाएं और ज्ञान
पुस्तक या अखबार की जगह फिल्म और ड्रामा से मिलने लगे हैं। इसने पाठक को दर्शक बना
दिया है, और सारा नाटक दुखांत चल रहा है।
कल्पना थी कि यह सब शुभ होगा। कबीरदास ने कहा था कि तू कहता कागद की लेखी, मैं
कहता आँखन की देखी। ऐसा कह कर उन्होंने परोक्ष में प्रिंट मीडिया की जगह विजुअल
मीडिया के महत्व को बढाया था। हम भी सोचते थे कि अब सच को हम अपनी आँखों से
देखेंगे। लाजिम है कि हम भी देखेंगे। पर क्या पता था कि ये जादूगरों का देश है जो
नजर को बांध देते हैं और हमें वही सच देखना पड़ता है जो ये दिखाते हैं। ये दो हजार
के नोट में लगी चिप भी देख लेते हैं जो सेटेलाइट के माध्यम से सात पुर्तों के
अन्दर से भी बोलेगी। ये जेम्स बांड 007 की तरह सुशांत सिंह की हत्या के राज ईडी और
सीबीआई के पहले से भी निकाल लेने का दावा कर सकते हैं, भले ही यह पता ना हो कि
कारगिल में पाकिस्तानी सेना और गलवान घाटी में चीनी सेना कहाँ तक घुस आयी थी।
इन्हें सुशांत सिंह की बीमारियों की तो खबर है पर यह नहीं पता रहता है कि देश के
सबसे सक्रिय गृहमंत्री, बिना किसी बीमारी के पूरे एक माह तक क्यों निष्क्रिय रहते
हैं।
आज जितना झूठ विजुअल मीडिया दिखा रहा है, उतना तो महाभारत के काल में भी नहीं
बोला गया था। तब अश्वत्थमा मारा तो गया था पर मनुष्य या हाथी के सच को फुसफुसा कर
बता दिया गया था। वैसे तब जानवरों के भी नाम होते थे और वे मनुष्यों से मिलते
जुलते होते थे। इन दिनों तो जाति वाचक टाइगर व्यक्ति वाचक में बदल दिया जाता है।
कोई कहे कि टाइगर बिक गया तो पहले पहल किसी नेता का ध्यान आता है।
अब 24X7 मीडिया का पेट तो भरना ही पड़ता है और अपना पेट पालते हुए मीडिया मालिकों का
पेट भी भरना पड़ता है. जो झूठ से भरता है। सो सच को छुपाना भी पड़ता है, इसलिए कठिन
परीक्षा शुरू हो जाती है। इसलिए वे वह सब तो दिखाते हैं, जो नहीं दिखाना चाहिए और
वह सब छुपाते हैं जिसे दिखाना जरूरी होता है। खबरों के लिए टीवी खोलते हैं और
विज्ञापन देखने लगते हैं जिनमें बड़े बड़े भारत रत्न, पद्मविभूषण, पद्मश्री च्यवनप्राश
में वह सब होना बता रहे होते हैं जो उस में होता ही नहीं है। अंत में गालिब की तरह
यह सोच कर रह जाते हैं कि
हमने सोचा था कि गालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गये थे पै तमाशा न हुआ
टीवी खोलते ही ऐसा लगता है कि रंगमंच के सामने बैठे हैं और न्यूज एंकर तब की
रामलीला के संवाद बोल रहा है जब माइक और लाउडस्पीकर नहीं होते थे और वह सीधे
दिल्ली से भोपाल तक मुँह से बोल कर ही खबरें सुनाने का प्रयास कर रहा है। डनलप
पिलो के गद्दों पर हो रहे कवि सम्मेलनों में वीर रस के कवियों के पाठ के जिस अन्दाज
का वर्णन शरद जोशी जी ने अपने एक लेख में किया है वह आज के चीखते चिल्लाते न्यूज
एंकरों को देख कर फिर से याद आ जाता है। फिलहाल अपने दृष्टिकोण को समाचार बता कर
सुनाने वाले एंकरों पर दतियावी भोपाली का एक शे’र सुनिए-
खबर खबर की तरह और नज़र नज़र की तरह
सुना रहे हो नज़रियात को खबर की तरह
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