व्यंग्य
किसान और जवान
दर्शक
जवाहरलाल नेहरू जैसे बड़े व्यक्तित्व के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री जैसे
बड़े दिल व छोटे कद के प्रधानमंत्री ने उनकी विरासत सम्हाली थी। चीनी सेना के घाव तब
तक भरे नहीं थे कि पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसपैठ करा दी थी। इसी समय देश भुखमरी
के कगार पर भी था। स्वाभिमानी प्रधानमंत्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया।
लोगों से प्रति सोमवार को उपवास रखने के लिए कहा। अभावों के इस दौर में भी जवानों
ने पाकिस्तान को मुँहतोड़ उत्तर दिया और किसान भी और मेहनत के लिए प्रोत्साहित
हुये।
आज फिर जवान और किसान चर्चा में हैं। भरपूर उत्पादन करके भी किसान लाखों की
संख्या में आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं और जवान बिना लड़े ही मारे जा रहे
हैं। उरी हो या पुलवामा , रोज रोज हमारी सीमा में ही हमारे जवान शहीद हो रहे हैं।
बदले में हम दुश्मन को मारने की जो खबरें प्रसारित करते हैं, उन पर देश का विपक्ष
ही भरोसा नहीं करता सो उसे सरकार देशद्रोही करार दे देती है। मनोबल बना रहना
चाहिए।
आचार्य रामभरोसे का कहना है कि सुरक्षा बलों का मनोबल बना रहना बहुत जरूरी है।
चाहे वे सीमा पर लड़ने वाले सैनिक हों या आंतरिक सुरक्षा वाली, पुलिस, सीआरपी,
बीएसएफ, आरपीएफ, हो या औद्योगिक सुरक्षा बल हों। सरकार जानती है कि सीमा की
सुरक्षा से आंतरिक सुरक्षा बहुत जरूरी है। जनता का असंतोष आसमान छू रहा है। पता
नहीं वह थैला उठा कर मेहुल भाइयों के पास पहुंचने भी देगी या नहीं।
नेता सुरक्षा बलों की वर्दी पहिन कर उनके पास जाता है , और कहता है कि हम तुम
भाई-भाई। वे कहते हैं यस सर! नेता फिर पूछता है- तुम्हारा मनोबल कमजोर तो नहीं पड़
रहा?
“नहीं सर”
“अगर पड़ रहा हो तो बताओ, हम किसी आन्दोलन पर गोलियां चलवा कर तुम्हारा मनोबल
मजबूत करा देंगे”
नेता आशंकित है कि किसान भी मर रहे हैं, जवान भी मर रहे हैं, कहीं दोनों एक
होकर “जय जवान जय किसान” न करने लगें। सो किसान को जवान से लड़वा दो। गाँधीवादी
तरीके से अपनी मांगों के लिए आये हुए किसानों पर जवानों से आँसू गैस के गोले
फिंकवा दिये, लाठी चलवा दी। सड़कें खुदवा दीं, डम्पर अड़ा दिये, कड़कड़ाती सर्दी में
ठंडे पानी की बौछारें करवा दीं। लगभग युद्ध छेड़ दिया। पर किसानों ने शांति बनाये
रखी। अपने लिए रखी पानी की बोतलों से प्यासे जवानों को पानी पिलाया, रोटी के लिए
पूछा। जवान जरूर सुरक्षा बलों में है पर उसका चाचा ताऊ तो किसान ही है। उसे उसके
दर्द का पता है, पर क्या करे, नौकरी तो आदेश मानने से ही चलती है।
किसान धरना देने वहाँ तक जाना चाहते हैं, जहाँ पर कानून बनते हैं। कानून बनाने
वाले वे लोग हैं जो उन्हीं किसानों ने ही चुने हैं। वोट डालना तो वे खेल समझते रहे
हैं, सो फिलिम में हैंड पम्प उखाड़ने वाले को दे दिया, बसंती को दे दिया, अगर धन्नो
खड़ी होती तो उसे भी दे देते, जो बसंती की खतरे में पड़ी इज्जत को बचाने के लिए क्या
खूब दौड़ी थी। अब किसानों पर लाठियां पड़ रही हैं तो न बसन्ती आ रही है, ना धन्नो।
किसानों को अन्दाज ही नहीं था कि वोट डालने को खेल समझने के क्या क्या दुष्परिणाम
होते हैं।
शास्त्री जी के नारे को अपना बनाने के चक्कर में अटलजी ने परमाणु परीक्षण करने
के दौरान जय जवान जय किसान के साथ जय विज्ञान भी जोड़ दिया था। मोदी जी ने उसे तोड़
दिया, अब जवान और किसान के युग्म को तोड़ने के प्रयास में हैं।
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