व्यंग्य
विधायक निर्माण
योजना
दर्शक
किताबों के महत्व के बारे में किसी विदेशी विद्वान ने कहा है कि ‘ बैग बाई और
स्टील ’ मांग कर पढो, या खरीद कर पढो नहीं तो चुरा कर पढो, पर पढो। किसने कहा है
यह मुझे याद नहीं और किसी जमाने में गेटे या गोयटे मेरे बड़े काम आते थे, मैं कोई
भी कथन यह मान कर गेटे के नाम से चिपका देता था, कि सामने वाले को क्या पता कि
किसने क्या कहा है, किंतु जब से मोदीजी प्रधानमंत्री बने हैं तब से लोग हर कथन का
इतिहास भूगोल ध्यान से देखने और बताने लगे हैं कि कबीर के नाम से वे जो कुछ पेले
दे रहे हैं वह मूलतः किसका कथन है। यही कारण है कि मैं अज्ञात को अस्पष्ट ही रहने
देता हूं। इसमें दोनों की लाज ढकी रहती है।
सो, बात चल रही थी किताबों की जिसके बारे में उपरोक्त कथन लोकप्रिय होने के
बाद लोग इसका प्रयोग करते हुए धड़ल्ले से मांगने और चुराने लगे। खरीदने की सलाह को
लोगों ने साइलेंट में डाल दिया। लगे हाथ बताता चलूं कि इससे किताबें देने वाले
होशियार हो गये। वाल्तेयर ने तो लिख ही दिया ‘कि अपनी पुस्तकें किसी को उधार मत
दो, क्योंकि मित्र लोग इन्हें पढ कर लौटाते नहीं हैं, मेरी अलमारी में जितनी
पुस्तकें हैं उनमें से ज्यादातर मित्रों से मांग कर ना लौटाई हुयी हैं’। इतना गणित
तो आपको भी आता ही होगा कि तीन में से दो चले गये तो क्या बचा।
किताबों के बारे में तो यह सम्भव है कि वे चुरा ली जायें किंतु लोकतंत्र में
जो जनप्रतिनिधि होते हैं, जिनके हाथ खड़े करने या गिराने से सराकारें बनती बिगड़ती
हैं, उनको जिताये बिना या खरीदे बिना काम नहीं चलता। विधायक को जिताना बहुत कठिन
काम हो गया है, आखिर कितने फिल्म स्टार, टीवी स्टार, गायक, संगीतकार, क्रिकेट
खिलाड़ी, बाबा बाबी, पुराने जमाने के राजा रानी बटोरे जायें! जनता जैसे जैसे समझदार
होती जा रही है वह इनमें से भी कई को हरा देती है। इसलिए सबसे अच्छा तो यह है जनता
अपनी कर ले, जिसे सरकार बनाना है वह बने बनाये जनप्रतिनिधि ही खरीद लेगी। राहत
इन्दौरी साहब कह गये हैं कि –
क्या जरूरी है कि
गज़लें भी खुद लिखी जायें
खरीद लायेंगे कपड़े
सिले सिलाये हुये
परसाईजी के इंस्पेक्टर मातादीन जब चाँद पर जाकर अपराधी पकड़ने का प्रशिक्षण
देते हैं तो नमूने के तौर पर हत्या के एक मामले में वे उसी को गिरफ्तार कर लेते
हैं, जिसने अपने दरवाजे के बाहर हत्या होने की सूचना दी थी। जब वहाँ की पुलिस इस
बात का विरोध करती है तो वे समझाते हैं कि सभी प्राणियों में एक उसी परमात्मा का
वास है। फांसी इसको हुयी या उसको हुयी फांसी पर तो परमात्मा ही चढेगा। जो पकड़ में
आ गया उसी को पेश कर दो, पुलिस की वाहवाही और ऊपर वाले भी खुश कि उनका विरोध करने
वाले को निबटा दिया।
इसी तरह वे विधायक हैं, जो अटूट धन कमाने के लिए ही विधायक बनते हैं। नेकर
वाले मदारी के इशारों पर नाचने वाली व ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाली कथित
राष्ट्रवादी पार्टी पंजा छापों को समझा देती है कि अंततः तो तुम्हें पैसा ही कमाना
है, चाहे ऐसे कमाओ या वैसे कमाओ। अपनी विधायकी की कीमत लो और ऐश करो। आपदा को अवसर
में बदलो। बुद्ध, महावीर और गाँधी के देश की जनता तो कोउ नृप होय हमें का हानी
वाली जनता है फिर लाइन में लग कर वोट दे आयेगी। ना तो वो बिकने वालों को नुकसान
पहुंचायेगी ना ही उनके धन को।
खरीदने वाले तो गाली
प्रूफ हैं ही, पर बिकने वाले और उनके नेता भी गजब के बेशरम हैं-
‘मरने वाले तो खैर
बेवश हैं, जीने वाले कमाल करते हैं’
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