गुरुवार, 15 सितंबर 2016

व्यंग्य लाश प्रधान देश

व्यंग्य
लाश प्रधान देश
दर्शक
कभी हमारा देश कृषि प्रधान देश कहलाता था, जो आज कृषकों की पेड़ से लटकती हुयी लाशों के लिए मशहूर हो रहा है। किसी प्रदेश का कोई जिला ऐसा नहीं बचा जहाँ किसानों ने आत्महत्या न की हो। मुनव्वर राना का शेंर है-
हजारों कुर्सिया इस मुल्क में लाशों पै रक्खी हैं
ये वो सच है जिसे झूठे से झूठा बोल सकता है
टीवी समाचारों के प्राइम टाइम ने डिनर टाइम बदल दिया है। आम तौर पर लोग दोनों काम एक साथ करते थे। मुँह से खाना खाते जाते थे और आँख कान से समाचार हजम करते जाते थे, पर अब मुँह के स्वाद में मनुष्य की मृत देह घुसी चली आती है, क्योंकि मुँह में निवाला और सामने अपनी पत्नी की लाश को कन्धे पर ढो कर लाने वाला। वह अपनी रोती हुयी किशोर बेटी के साथ चला जा रहा है, चैनल दर चैनल। उसकी यात्रा खत्म होती नजर नहीं आती। कितने भी चैनल बदल कर देख लो पर उसकी गति जारी है। सोशल मीडिया पर भी प्रत्येक पोस्ट में वह विद्यमान है। जहाँ नहीं है वहाँ और भी भयानक है। एक लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले जाना है और सरकारी वाहन नहीं है क्योंकि सरकारी वाहन तो विशिष्ट लोगों की शोभायात्रा में लगे होते हैं जहाँ मंत्री, अफसर और उनके कुत्ते सवार होकर निकलते हैं। आम आदमी के लिए तो केवल वे टेलीफोन नम्बर हैं जिनके लगाने पर उन्हें कोई उठाता नहीं है। आटो वाला 3500 रुपये मांगता है और प्रावधान केवल सौ रुपये का है। कर्मचारी विवश हैं सो वे लाश की कमर पर लात रख कर कमर से उसके पैर तोड़ते हैं और गठरी बाँध कर बाँस से लटका कर ट्रेन में पटक आते हैं। इस पूरी कार्यवाही का वीडियो आपके डिनर टाइम पर आता रहता है। सब कुछ इतना भयानक है कि माँसाहारी व्यक्ति भी अपनी प्लेट की मुर्गी की टांग ऐसे नहीं तोड़ पाता। दुष्यंत ने शायद ऐसे ही दृश्य देख कर कहा होगा-
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
आप खाना नहीं खा पाते पर कहानियां खत्म नहीं होतीं। भोपाल के अस्पताल के शव गृह में चूहे लाश कुतर जाते हैं और एक के परिवारजन की लाश दूसरे को दे देते है। कहते हैं लाश लाश सब बराबर।  पर ऐसा है नहीं। मर जाने के बाद भी दलित की देह दलित रहती है। जिस प्रदेश में अगर सवर्ण का कुत्ता दलित की रोटी खा लेता है तो कुत्ते को गोली मार दी जाती हो, उस प्रदेश में कोई सवर्ण किसी दलित की शव यात्रा को अपने खेत में से कैसे निकलने दे सकता है भले ही गाँव के शमशान का रास्ता पानी में डूब गया हो। कन्धे कन्धे पानी में डूबे लोग शव को ऊपर उठाये चले जा रहे हैं। उनमें से कोई ‘राम नाम सत्य है’ कहता सुनाई नहीं देता। सन्देह होता है कि उनके लिए अभी भी वही सत्य है या बदल गया है।
लाश को देख कर आदमी संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि उसे अपनी मौत याद हो आती है जिसके बारे में चचा गालिब कह ही गये हैं कि ‘मौत का एक दिन मुअइयन है’। टीवी देखने वाले को भी लगता है कि कहीं हमारा भी वह तयशुदा दिन ही तो आसपास नहीं है। यह संवेदनशीलता केवल अपने लिए सीमित होती जा रही है। दिल्ली में सुबह सुबह चौकीदारी करके लौट रहे एक आदमी को एक वाहन कुचल कर चला जाता है पर आसपास से गुजरने वालों में केवल एक आदमी रुकता है। पहले वह भी निकल गया था पर कुछ कदम चलने के बाद उसे अपना कर्तव्य याद आता है और वह लौटता है तथा पास में पड़ा हुआ मृतक का मोबाइल उठा कर अपने रास्ते चला जाता है।
रमानाथ अवस्थी बहुत पहले कह गये हैं-
यह् एक मुर्दों का शहर
किसके लिए लाऊँ नदी, किसके लिए खोदूं नहर
यह एक मुर्दों का शहर
कैसी अज़ब ये भीड़ है, हँसती नहीं रोती नहीं
क्या हो गया है चोट को, तकलीफ तक होती नहीं
जिसकी फिकर में दोस्तो, जागा किया मैं उम्र भर
ये एक मुर्दों का शहर
भोजपुरी में एक लोकोक्ति है-
भला भया पिऊ मर गये, इन बच्चन के भाग
सोलह ठो रोटीं बचीं, एक कटोरा साग  

वैसे सब के भाग्य में मौत का संतोष भी नहीं होता। चेन्नई में एक निर्माणाधीन भवन मध्य प्रदेश के पुलों की तरह गिर गया जिसमें कई मजदूर दब गये। उन मजदूरों में से एक      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें