सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

व्यंग्य मार्शल ला वाला लोकतंत्र

 

 व्यंग्य

मार्शल ला वाला लोकतंत्र  

दर्शक

जब हम स्वतंत्रता की रजत जयंती की ओर बढ रहे थे तब ही उसका सबसे बड़ा हनन सामने आ रहा था। किसी शायर ने सही कहा है कि - 

बहुत दिनों से है ये मसअला सियासत का

कि जब जवान हों बच्चे तो कत्ल हो जायें

हमारी आज़ादी ऐसे ही लोगों के हाथों में पड़ गयी है। मुकुट बिहारी सरोज जी की कविता पूछती थी – क्योंजी ये क्या बात हुयी

ज्यों ज्यों दिन की बात की गई

त्यों त्यों रात हुयी

उम्मीद तो यह थी कि देश एक परिपक्व नेतृत्व के साथ परिपक्व लोकतंत्र की ओर बढता, किंतु सारा मामला ठगों के हथों में चला गया है। असफल नाटकों के गीत में सरोज जी लिखते हैं-

नामकरण कुछ और खेल का, खेल रहे दूजा

प्रतिभा करती गई दिखाई, लक्ष्मी की पूजा

असफल, असम्बद्ध निर्देशन, दृश्य सभी फीके

स्वयं कथानक कहता है, अब क्या होगा जीके

जन मन गण की जगह, अंत में गाया हर गंगे

राम करे दर्शक दीर्घा तक आ ना जायें दंगे

जिस लोकतंत्र को बनाना था, मजबूत करना था उसे दिन प्रति दिन कमजोर किया जा रहा है। धूमिल को कहना पड़ा था कि-

 हमारा लोकतंत्र,

सिनेमा हाल में रखी हुई उस बाल्टी की तरह है

जिस पर आग लिखा है और रेत भरी है,

मुक्तिबोध, जो है, उससे और बेहतर चाहते थे किंतु हो यह रहा है, जैसा कि एक बुन्देली कहावत में बदतर होती स्थिति के बरे में कहा गया है-

धी की आँख किया रुजगार

सोलह सौ के भये हजार

सदन के दिन, दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं, विपक्षी सांसद तक शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा है, तो आम आदमी की क्या औकात! जो बोलने की कोशिश करते हैं, उन्हें मार्शल उठा कर फेंक रहे हैं । जाओ बाहर जाओ और बोल लो चाहे जितना बोलना हो। टुकड़खोर प्रैस विपक्ष की प्रैस कांफ्रेंस में आता ही नहीं, आता है तो समाचार नहीं बनाता, बनाता है तो सम्पादक छापता नही। और इसी तरह आज़ादी का स्वर्ण जयंती वर्ष आ रहा है जो आजादी को स्वर्ण भस्म में बदल देगा और उस राख को कोई व्यापारी बाबा बेचेगा।

एक ऐसे ही व्यापारी बाबा ने जो मूर्ख भक्तों को ही शिकार बनाता है क्योंकि वहाँ जमीन पहले से ही नम होती है, डाक्टरों से पंगा ले लिया। डाक्टरों ने उसे इंजेक्शन ठोकने की जगह उस पर केस ठोक दिया। वह बाबा जो बड़े बड़े सत्ताधीशों को सत्ता दिलवाने का दावा करता था किसी साध्वी की तरह कहा कि मैंने तीसरी आँख खोल दी तो इन डाक्टरों को भस्म कर दूंगा। डाक्टरों ने शांत चित्त से कहा कि बाबाजी तुम्हारी दूसरी आँख तो ठीक से खुलती नहीं है तीसरी क्या खोलोगे। तब से बाबा को ‘बस एक चुप सी लगी है [नहीं उदास नहीं] ।

 

 


 

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