व्यंग्य
ईवीएम चुनाव
दर्शक
मशीन युग में जब सारे के सारे काम मनुष्य की जगह मशीनों से होने लगे हों तो
चुनाव ही क्यों मनुष्यों पर अटके रहें, सो उसने अपना राजा खुद चुनने के लिए भी
मशीन का निर्माण कर लिया। चूंकि मशीन का निर्माण भी मनुष्यों ने किया था इसलिए
उसने इस बात की भी प्रोग्रमिंग कर दी कि किसे चुनना है। जब मशीन ही बना ली तो फिर
दिमाग को क्यों तकलीफ दी जाये! कब किसको कितने वोटों से जीतना है, यह तय कर दिया
गया। अब केवल मशीन पर अधिकार करना बाकी रह गया था। जिसके हाथ में मशीन उसके पक्ष
में सरकार, इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जिसके पक्ष की सरकार, उसी के हाथ में मशीन।
हम पाखंड में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते इसलिए दिखावे के लिए एक चुनाव आयोग भी
बना डाला, जो निष्पक्ष दिखने की कोशिश करता रहता है और अब इस प्रयास में और ज्यादा
नंगा होता जाता है।
वैसे चुनाव आयोग हमेशा से ऐसा नहीं रहा, इसमें कभी कभी शेषन जैसे लोग भी आते
रहे जो इतना गुर्राते थे कि लोग उन्हें अल्शेषन कहने लगे थे जो एक पालतू पशु की
किस्म होती है। नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंने अपनी लोकप्रियता को आजमाना
चाहा और सीधे राष्ट्रपति का चुनाव लड़ डाला, और हार गये। 2002 में एक लिंग्दोह साहब
भी हुये थे, जिन्होंने गुजरात विधान सभा चुनाव स्थगित कर के दंगों को भुनाने की
मोदी योजना पर पलीता लगाना चाहा। इससे मोदी जी के नथुने फड़कने लगे और लिंग्दोह
साहब के धर्म, जाति ही नहीं उनके नाम का भी मजाक उड़ा कर गरियाने लगे। मोदीजी जानते
थे कि उत्तेजना किसी भी तरह की हो, वह ज्यादा देर तक नहीं टिकती इसलिए वे गुजरात
के नरसंहार के तुरंत बाद चुनाव चाहते थे वहीं दूसरी ओर लुटा पिटा अल्पसंख्यक समाज
कुछ सांस लेना चाहता था। मोदी जी ने कहा कि वे सोनिया गांधी से चर्च में मिलते
होंगे। चुनाव तो टल गये थे किंतु चुनाव परिणाम नहीं टले। यही वह समय था जब लोगों
का चुनाव प्रणाली से विश्वास टूटना शुरू हो गया था। जब इतने नैतिक पतन के बाद भी
चुनाव मशीन को ही जीतना है तो खाली पीली मुँह चलाने से क्या होगा? कभी हम लोग
छात्र जीवन में चार्वक के नाम से कहने लगते थे-
पठतव्यं तो मरतव्यं,
न पठतव्यं तो मरतव्यं
फिर दांत किटाकिट
किं कर्तव्यं
वही अब भी कहा जाने
लगा कि बटन भले ही किसी का दबाओ, वोट तो बीजेपी को ही जायेगा।
हमारी ईवीएम मशीनें भी बहुत आवारा हो गयी हैं। चुनाव के बाद उन्हें ले जाने को
नियुक्त वाहन खराब हो जाता है और चुनाव का पीठाधीन अधिकारी जिस प्राइवेट वाहन को
रोकता है, वह भाजपा उम्मीदवार का वाहन होता है जो अनजाने से उसी रास्ते पर निकल
आता है और ईवीएम गाती हुयी निकल पड़ती है-
चली चली रे पतंग
मेरी चली रे
चली बादलों के पार,
होके डोर पै सवार
सारी दुनिया ये देख
देख जली रे
दूसरी तरफ टीएमसी वाले भी भाजपाइयों के दीदी
जीजा जी हैं सो उन्होंने भी ईवीएम मशीनों को घर में पाल लिया। अब ईवीएम से निकला
बहुमत जन मानस की भावनाएं व्यक्त नहीं करता ।
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