व्यंग्य
आजादी और भीख
दर्शक
मेरे पिता दो पंक्तियां दुहराते थे-
जो पर पदार्थ के इच्छुक हैं
वे चोर नहीं तो भिक्छुक हैं
भीख की यही परिभाषा है कि वह बिना परिश्रम के अर्जित की हुयी वस्तु होती है।
क्या कंगना को पद्मश्री कठिन परिश्रम से मिली थी या भीख में मिली थी? मैं मानता हूं कि कठिन परिश्रम से मिली होगी। इस श्रम का मूल्यांकन किस ने किया यह ज्ञात नहीं है। प्रतियोगिता में किस किस के नाम थे यह भी पता नहीं है। लगता है कि यह सम्मान उन्हें ट्वीटर पर चहकने के लिए ही मिला होगा। उन्होंने सुशांत सिंह की मौत को हत्या सिद्ध करने की कोशिश की ताकि भाजपा विरोधी महाराष्ट्र सरकार को बदनाम किया जा सके। ऐसा करते हुए उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को चुनौती भी दी कि जो उखाड़ सकते हो सो उखाड़ लो। उन्होंने भी जो उखड़ सकता था उसे उखड़वा दिया। इनाम में उन्हें कमांडो की सुरक्षा दी गयी। तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर चलने लगे। नकली मशीने घोड़े पर लक्ष्मीबाई की एक्टिंग करने वाली कंगना खुद को सचमुच की लक्ष्मी बाई समझने लगी।
लोकप्रियता की ये सरल विधियां उस उक्ति से जन्मी हैं कि बदनाम भी होंगे तो क्या नाम ना होगा! होगा! और जब उस पर इनाम मिलने लगे तो चस्का लग जाता है। चस्का बुरी चीज होती है। इसलिए कंगना ने गोडसे को गाँधी की पुण्यतिथि के दिन गोडसे को महापुरुष बताते हुए महिमा मंडन कर दिया तो जितनी बदनामे हुयी उतनी ही वह भाजपा वालों की निगाहों में चढ गयी। इसी क्रम में उसने आन्दोलनकारी किसानों को आतंकवादी बता दिया। भाजपा की निगाहों में चमकने के लिए यह काफी था। इसी ने उसकी पद्मश्री पक्की कर दी।
कंगना के उदय के साथ ही राखी सावंत का बाज़ार पिट गया और वह चर्चा से गायब हो गयी। ऐसी अभिनेत्रियों की लोकप्रियता जिन कारणों से होती है वे पुरस्कार लेते समय वैसे कपड़े नहीं पहनतीं जैसी पोषाक के लिए उन्हें पुरस्कार मिलता है। रामभरोसे कल्पना कर रहा था कि राष्ट्रपति से पुरस्कार लेने जाते समय वह क्या उतने ही कपड़े पहिन कर जायेगी जितने कपड़ों में फोटो खिंचवाती है। पर पाखंड तो पाखंड होता है, उस समय भारतीय संस्कृति याद आ जाती है जो केवल साड़ी में ही सुरक्षित रहती है।
पद्मश्री के बाद उन्हें गाँधी की हत्या से भी बड़ा कुछ करना था सो उसने पूरे आज़ादी के आन्दोलन पर थूकने का मन बना लिया। भाजपा जो काम परीक्षण के तौर पर करती है उसके लिए छुटभइयों को आगे कर देती है, जब आलोचना होने लगती है तो धीरे से पल्ला झाड़ लेते हैं। वे कभी ऐसे बयानों की आलोचना नहीं करते। पहले वरुण गाँधी भी मुसलमानों की दाढी से लोगों को डराने लगे थे और हाथ काटने की धमकियां देकर बड़े पद की उम्मीदें करने लगे थे, पर जब पद नहीं मिला तो उसी युक्ति के सहारे वे किसानों का पक्ष लेने लगे और कंगना के बयान पर सवाल करने लगे। दबाव की राजनीति ऐसी ही होती है।
रामभरोसे पूछ रहा था कि एक पहेली बताओ।
अगर आज़ादी 2014 में मिली थी तो 1947 की भीख में क्या मिला था? जहाँ कुछ नहीं मिला
हो तो भीख कैसी?
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