सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

व्यंग्य पद्म पुरस्कार , छद्म पुरस्कार

 

व्यंग्य

पद्म पुरस्कार , छद्म पुरस्कार

दर्शक

प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी नया वर्ष और उसमें पहले महीने के रूप में जनवरी आ गया। परम्परा चली आ रही है कि छब्बीस-जनवरी, जनवरी में ही पड़ती है। परम्परानुसार छब्बीस जनवरी को ही गणतंत्र दिवस पड़ता है जिसमें परेड और झांकियों के अलावा पद्म पुरस्कार भी घोषित होते हैं। ये पुरस्कार विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय  काम करने वालों को दिये जाते रहे हैं किंतु पिछले कुछ वर्षों से ऐसे लोगों को दिये जाने लगे हैं जिनका उल्लेख पुरस्कार मिलने के कारण ही होता है। कोई पूछता है कि फलां का योगदान क्या है, तो उत्तर मिलता है कि इन्हें पद्म पुरस्कार मिला है।

पहले पुरस्कारों से लोग सम्मानित होते थे अब कुछ लोगों को पुरस्कार मिलने से पुरस्कारों की गरिमा घटती है। पुरस्कारों के लिए जिनकी जीभ लपलपाती रहती है वे उनकी गुणवत्ता पर कभी टिप्पणी नहीं करते कि क्या पता कब इससे उनकी सम्भावना की जड़ सूख जाये। आशा की डोर चाहे जितनी भी पतली हो गुलामी की जंजीर से मजबूत होती है। कहते हैं कि उससे आसमान टंगा रहता है।

रामभरोसे को भरोसा था कि जब इतने नाम बदले जा रहे थे तब इन पुरस्कारों के नाम भी बदले जा सकते थे। पद्मश्री को कमलश्री, और इसी तरह कमलभूषण, कमलविभूषण आदि किया जा सकता था।

पद्म पुरस्कारों के युग्म से सरकारें कभी कभी कुछ मजाक भी कर लेती रही हैं जैसे धर्मवीर भारती और चिरंजीत को एक ही वर्ष में पद्मश्री एक साथ दी गयी थी, व हरिशंकर परसाई व काका हाथरसी के साथ भी ऐसा ही किया गया था। वो तो बच्चे हैं जिनमें से कई को मन के सच्चे माना जाता है, इंकार भी कर देते हैं। एक संडे स्कूल में बच्चों को अच्छी अच्छी बातें सिखायी गयीं और फिर पूछा गया कि बताओ स्वर्ग जाने के लिए क्या क्या काम करना पड़ेगा। बच्चों ने दिन भर में सिखाये गये सारे काम गिना दिये। पादरी ने उनकी तारीफ की और फिर पूछा कि बताओ स्वर्ग कौन कौन जाना चाहता है? एक लड़के को छोड़ कर सब ने हाथ खड़े कर दिये। पादरी उसके पास आया और बड़े प्रेम से पूछा कि तुम स्वर्ग नहीं जाना चाहते?

लड़का बोला स्वर्ग तो जाना चाहता हूं, किंतु इन लड़कों के साथ नहीं जाना चाहता। पद्म पुरस्कारों की स्थिति भी ऐसी ही है। राहत इन्दौरी ने कहा है-

एक सरकार है, इनआम भी दे सकती है / इक कलन्दर है इंकार भी कर सकता है

बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विनम्रतापूर्वक ऐसा ही किया है। यह परम्परा वामपंथियों में ही देखने को मिलती है। जब एक बार साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए कुछ सम्पादकों को पुरस्कृत किया गया थो उस सूची में ‘लोकलहर’ के सम्पादक हरकिशन सिंह सुरजीत का नाम भी था। इसे शेष सारे सम्पादकों ने तो स्वीकार कर लिया किंतु कामरेड सुरजीत ने कहा कि यह तो हमारी पार्टी की नीति है, और उसके सदस्य के रूप में मैंने यह काम किया है, अगर सम्मानित करना है तो हमारी पार्टी को करो। इसी तरह सफदर हाशमी ने जन नाट्य मंच को मिले पुरस्कार लेने से इंकार करते हुए हरकिशनलाल भगत से कहा था कि पुरस्कार देने वाल हाथ इतने साफ नहीं हैं कि उनके हाथों से पुरस्कार ग्रहण किया जा सके। 

  

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