सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

व्यंग्य घर वापिसी

 

व्यंग्य

घर वापिसी

दर्शक

राजकपूर की फिल्म जिस देश में गंगा बहती है का एक गीत था- आ अब लौट चलें , बाहें पसारे, तुझको पुकारे, देश मेरा। यह गीत डकैतों को जंगल छोड़ कर गाँव की ओर लौटने का सन्देश देता था, क्योंकि पहले के डकैत जंगलों में ही रहते थे और डकैत बनने से पहले मौलिक रूप से ग्रामीण हुआ करते थे। फिल्मों के अनुसार डकैतों की भूमिका निभाने के लिए वे काले कपड़े पहिनते थे, काला टीका लगाते थे और काली की ही उपासना करते थे। नगरों में रहने वाले तो तब डकैती डालने के लिए दुकानदार या उद्योगपति बन जाते थे।

अब डकैती का मामला भी बदल गया है, अब डकैत अगर पलायन भी करता है तो ज्यादा से ज्यादा नगरों से राजधानियों की ओर करता है जहाँ उसका नाम जनप्रतिनिधि होता है। पहले के डकैत सेठ साहूकार ब्याजखोरों को दोनाली बन्दूकों की दम पर लूटते थे। अब ऐसा नहीं होता है , अब सरकार नामक संस्था यह काम करती है जो पुलिस आदि की बर्दियों में रहने वाले बन्दूकधरियों के सहारे जो धन वसूलती हैं, उसे टैक्स कहते हैं। फिर उस धन को ठेकेदारी के नाम पर अपने लोगों में बांट दिया जाता है। हिस्सा चुपचाप नेताओं और अफसरों की तिजोरी तक पहुंच जाता है। विदेशों से बिना जरूरत के भी रक्षा उत्पादन खरीदे जाते हैं जिनके सौदे सुरक्षा के बहाने गुप्त रखे जाते हैं। इससे कमीशन पैदा होता है जिसे बंगारू लंगारू आदि रुपयों की जगह डालरों में  तक मांगते रहे हैं। जो ईमानदारी से बाँट लिया जाता है। विकास नाम का जो हथियार है उसके पोस्टरों से ही डरा डरा कर जनता को आतंकित कर दिया जाता है, फिर भी सरकार को आतंकवादी नहीं कहा जाता। आतंकवादी तो वे होते हैं जो अपनी पहचान गुप्त रखते हैं, जिससे सरकारों को कुछ भी ऊंचानीचा उनके सिर पर थोप देने में आसानी होते है। प्रतिवाद करने पर उन्हें गोली मार दी जाती है और पिछली तारीख से उन पर इनाम घोषित कर दिया जाता है। किस पर कितना इनाम घोषित है यह जनता को तब तक पता नहीं चलता जब तक कि उसे मार ना दिया गया हो।

इसलिए अब असली डकैतों की घरवापिसी सम्भव नहीं क्योंकि वे अब सारा काम घर पर बैठे हुए ही करते हैं। बकौल मुकुट बिहारी सरोज – इनके जितने भी मकान थे, वे सब आज दुकान हैं, इन्हें प्रणाम करो ये बड़े महान हैं।

इसके अलावा अब कहाँ घर लौटेंगे, हाँ अगर कोई सक्षम सरकार बने और सक्षम न्यायालय स्थापित हो सके तो गृह की जगह कारागृह की ओर जा सकते हैं। अभी तो कारागृह उन लोगों से भरे हुये हैं जो कहते थे कि –

खुदा ने दे दिया अब जेलखाना

बहुत तकलीफ थी मुद्दत से घर की  

इन दिनों घर वापिसी तो वह कहलाती है जिसमें व्यक्ति अपना धर्म छोड़ कर सत्तारूढ बहुसंख्यकों के दल वाले धर्म में प्रवेश करता है। वह किस घर से गया था यह तो उसके बाप दादाओं को भी पता नहीं होता सो घर वापिसी में किसी के भी घर में घुस जाने को स्वतंत्र होता है। सबै भूमि गोपाल की।  जरूरत हो तो वहाँ प्लास्टिक सर्जरी की भी सबसे पुरानी व्यवस्था मौजूद रहती है। ऐसी घर वापिसी में पाप पुण्य का हिसाब भी ट्रांसफर करना होता होगा। जो फायलें कयामत के दिन के लिए पेंडिंग रखी होंगीं उन्हें अपडेट करवाना होता होगा। मशहूर शायर राजेश रेड्डी का एक शे’र है-

जिन गुनाहों का बस खयाल आया

अगर उन को भी गिन लिया गया – तो!

एक घर वापिसी किसानों की भी हुयी है जो जीत जैसे माहौल में ऐसे  नाचते गाते लौटे हैं जैसे जंग जीत कर लौते हों। मेरे पिता कुछ पंक्तियां गुनबुनाते थे –

ओ, विप्लव के थके साथियो

विजय मिली विश्राम न समझो !    

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